रजिया रेखाचित्र में लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी एक मनिहारिन रजिया का उल्लेख करता है। जो अपने मां के साथ चूड़ियां बेचती है और वह इतनी सुंदर है की लेखक की नजर उससे हट ही नहीं रही धीरे धीरे लेखक और उसकी आंखे मिलने लगती है और फिर समय के साथ लेखक आगे पढ़ाई के लिए शहर चली जाते हैं और उनका कभी कभी यहां आना होता है। अब रजिया से मिलना और दुर्लभ हो गया है लेकिन इस बार जब वे गांव आए तो रजिया की पोती उन्हे बुलाने आती है रजिया बीमार है वो शायद उनकी आखिरी मुलाकात है।
मेरे गाँव में लड़कियों की कमी नहीं, किन्तु न उनकी यह वेश-भूषा, न यह रंग-रूप? मेरे गाँव की लड़कियाँ कानों में बालियाँ कहाँ डालतीं और भर-बाँह की कमीन भी उन्हें कभी नहीं पहने देखा और, गोरे चेहरे तो मिले हैं, किन्तु इसकी आँखों में जो एक अजीब किस्म का नीलापन दीखता, वह कहाँ? और समूचे चेहरे की काट भी कुछ निराली जरूर-तभी तो मैं उसे एकटक घूरने लगा। |
मैं पढ़ते-पढ़ते बढ़ता गया। बढ़ने पर पढ़ने के लिए शहरों में जाना पड़ा। छुट्टियों में जब-तब आता। इधर रजिया पढ़ तो नहीं सकी, हाँ, बढ़ने में मुझसे पीछे नहीं रही। कुछ दिनों तक अपनी माँ के पीछे-पीछे घूमती फिरी। अभी उसके सिर पर चूड़ियों की खँचिया तो नहीं पड़ी, किन्तु खरीदारिनों के हाथों चूड़ियाँ पिन्हाने की कला वह जान गयी थी। उसके हाथ मुलायम थे, बहुत मुलायम, नयी बहुओं की यही राय थी। वे इसी के हाथ से चूड़ियाँ पहनना पसन्द करतीं। उसकी माँ इससे प्रसन्न ही हुई-जब तब रजिया चूड़ियाँ पिन्हाती, वह नयी-नयी खरीदारिनें फँसाती। |
हाँ, रजिया अपने पेशे में भी निपुण होती जाती थी। चूड़िहारिन के पेशे के लिए सिर्फ यही नहीं चाहिए कि उसके पास रंग-बिरंग की चूड़ियाँ हों-सस्ती, टिकाऊ, टटके से टटके फैशन की। बल्कि यह पेशा चूड़ियों के साथ चूड़िहारिनों के बनाव-शृंगार, रूप-रंग, नाजोअदा भी खोजता है। जो चूड़ी पहनने वालियों को ही नहीं, उनको भी मोह सके, जिनकी जेब से चूड़ियों के लिए पैसे निकलते हैं, सफल चूड़िहारिन वह! यह रजिया की माँ भी किसी जमाने में क्या कुछ कम रही होगी-खंडहर कहता है, इमारत शानदार थी। |
ज्यों-ज्यों शहर में रहना बढ़ता गया, रजिया से भेंट भी दुर्लभ होती गयी। और एक दिन वह भी आया, जब बहुत दिनों पर उसे अपने गाँव में देखा, पाया उसके पीछे एक नौजवान चूड़ियों की खाँची सिर पर लिये है। मुझे देखते ही वह सहमी, सिकुड़ी और मैंने मान लिया, यह उसका पति है। किन्तु तो भी अनजान सा पूछ ही दिया- “इस मजदूरे को कहाँ से उठा लायी है रे?” “इसी से पूछिए, साथ लग गया, तो क्या करूँ।” नवजवान मुस्कराया, रजिया विहँसी, बोली ‘यही मेरी खाविन्द है मालिक। |
मैं भौचक्का, कुछ सूझ नहीं रहा, कुछ समझ में नहीं आ रहा। लोग मुस्करा रहे हैं। नेताजी, आज आपकी कलई खुल कर रही है। नहीं। यह सपना है कि कानों में सुनायी पड़ा, एक कह रहा है-कैसी शोख लड़की! और दूसरा बोलता है ठीक अपनी दादी जैसी। और तीसरे ने मेरे होश की दवा दी-यह रजिया की पोती है बाबू! बेचारी बीमार पड़ी है। आपकी चर्चा अक्सर किया करती है। बड़ी तारीफ करती है! फर्सत हो तो जरा देख लीजिए, न जाने बेचारी जीती है या |
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